आध्यात्म क्या है?(Spirituality)
आध्यात्म क्या है?(Spirituality) आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – आत्मा के अध्यन को आध्यात्म कहते है यानी स्वयं का अध्यन, अपने आप को आत्म-सात कर लेना यानी स्वयं का ज्ञान होना यदि आप को स्वयं का ज्ञान हो तो आप को ज्ञान हो जायेगा की आप क्या हैं और आपको कैसे जीवन जीना चाहिये इसका अर्थ यह है की आप सत्य जान चुके है यानि शरीर तो नश्वर है इसकी निश्चित आयु है जो कभी-भी नष्ट हो सकता है परन्तु आत्मा तो अमर है, अजर है अविनाशी है जो कभी भी नष्ट नहीं होती है परन्तु हमारे शरीर के द्वारा भौतिक पदार्थो की कामना करने से ही हमे सुख़-दुःख का अनुभव होता है जबकि आत्मा का इससे कोई लेना देना नहीं होता है और अगर हम स्वयं अपनी आत्मा को पहचान लें तो जो स्वयं को जान चूका है वह समस्त प्रकार के लोभ और मोह से दूर हो जाता है और सदैव आनंद का अनुभव करता है।
आध्यात्म क्या है?(Spirituality) आध्यात्मिक और आध्यात्मिकता का अर्थ क्या है?
Spirituality refers to the quest for a deeper understanding of the self and the universe, while also emphasizing the connection between individuals and something greater than themselves. It encompasses the exploration of moral values, purpose, and inner peace. At its core, spirituality seeks to transcend the material world and delve into the realm of the spiritual and transcendental.
आध्यात्म के बारे जानकारी का आभाव –
आध्यात्म क्या है?(Spirituality)आखिर जब भी आध्यात्मिकता की बात आती है, हर किसी के मन में कुछ अलग सा ख्याल आने लगता है – कोई इसे सन्यास से जोड़ कर देखता है, कोई इसे जीवन से पलायन तो कोई इसे बुढ़ापे का कर्म समझने लगता है। आध्यात्म को धर्म, धारणा इत्यादि नमो से पुकारा जाता रहा है। आध्यात्म क्षेत्र को विज्ञान से भी सतत् चुनोतियाँ अक्सर मिलती रहती है। क्योंकी इस पर अकसर कई प्रकार की भ्रान्तियों और रुढि-वादि मान्यताओं का साया छाया हुआ है। आध्यात्म के शाश्वत सनातन अनादी रूप को ऋषि-मुनियों ने अपने वचनों अपनी सिद्धियों और उच्च कोटि के ज्ञान के माध्यम से प्रकट किया है। वाही आज हमारे समक्ष बदलते हुए रूप में विद्यमान है। इसका क्या कारण है? आखिर विज्ञान को क्यों ऐसा मौका मिला? और वह आध्यात्म पर प्रहार कर सका? आध्यात्म ने विज्ञान द्वारा उठाये गये संदेहों पर विवेक सम्मत उत्तर देने के स्थान पर खीझ अधिक व्यक्त की। यही कारण है की आध्यात्म विज्ञान संदेहों अप्रमाणिकता के आरोपों का शिकार होता चला गया। यह मध्यकाल के पतन के समय में हुए पर-प्रभावों के कारण हुई चरम क्षति मानी जा सकती है। लेकिन अब वह समय आगया है की अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर जन-साधारण को बतायें की आध्यात्म अनुशासन एवं साधनायें उतनी ही विज्ञान सम्मत है जितनी की स्वयं पदार्थ विज्ञान की विधायें। आध्यात्म वस्तुत: क्या था ? आध्यात्मिकता आखिर है क्या, आइए जानते हैं –
आध्यात्मिकता अनादिकाल से भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही है। लेकिन समय के साथ लोगों ने इस शब्द को अपनी समझ के अनुसार इस्तेमाल करते हुये इसका अलग-अलग अर्थ निकालना शुरू कर दिया और तब से ही इसका प्रचलन बढ़ता चला गया।
इन कुछ लक्षणों से आप समझ जाएंगे कि आध्यात्मिकता आखिर है क्या और एक आध्यात्मिक इंसान कैसा होता है?
आजकल दुनिया में अधिकतर लोगों को, विशेषकर युवावर्ग को, आध्यात्मिकता के नाम से एक तरह की बोरिंग (philosophy) या यूँ कहिये की एलर्जी हो गई है। इसका कारण यह है कि आध्यात्मिकता को दरअसल बेहद भद्दे तरीके से पेश किया जा रहा है। आजकल लोग आध्यात्मिकता का मतलब निकालते हैं कि स्वयं को अपने घर से बिना चप्पल-जूतों के एक जोड़ी कपड़ों में निकाल जाना किसी जंगल या किसी पर्वत पर भूखे-प्यासे रह कर ध्यान करना यातना देना और अभावग्रस्त जीवन बिताना। इसको लोग भूखे रहने और सड़क के किनारे बैठ कर भीख मांगने से जोड़ने लगे हैं, और सबसे खास बात यह कि आध्यात्मिकता को जीवन-विरोधी या जीवन से पलायन समझा जाता है। आम तौर पर लोग यह मानते हैं कि आध्यात्मिक लोगों को जीवन का आनन्द लेना वर्जित है और हर तरीके से कष्ट झेलना जरूरी है। जबकि सच्चाई यह है कि आध्यात्मिक होने का आपके बाहरी जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। एक बार किसी ने सद्गुरु से पूछा – ’एक आध्यात्मिक और सांसारी मनुष्य में क्या अंतर है?’ सद्गुरु का सहज जबाब था – की एक सांसारी मनुष्य केवल अपना भोजन कमाता है, बाकी सब कुछ – जैसे खुशी, शांति और प्रेम, आनंद के लिये उसे दूसरों की भीख पर निर्भर रहना पड़ता है। इसके विपरीत एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी शांति, प्रेम और खुशी सब कुछ खुद कमाता है, और केवल भोजन के लिये दूसरों पर निर्भर रहता है। लेकिन अगर वह चाहे, तो अपना भोजन भी कमा सकता है। इन कुछ लक्षणों से आप समझ जाएंगे कि आध्यात्मिकता आखिर है क्या और एक आध्यात्मिक इंसान कैसा होता है? क्या एक धार्मिक इंसान और एक अध्यात्मिक इंसान एक जैसा होता है या दोनों अलग हैं –
अध्यात्म क्या है? ओशो – adhyatm kya hai osho
जब गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, हे अर्जुन वह परम अक्षर अर्थात जिसका कभी नाश नहीं होता। जो कभी विनाश की तरफ नहीं जाता। ऐसा सच्चिदानंद धन परमात्मा तो ब्रह्मा है और अपना स्वरूप अर्थात स्वभाव अध्यात्म नाम से कहा जाता है।
ओशो ने पूर्व के अध्यात्म और पश्चिम के भौतिकवाद को एक करने की बात कही। ओशो का मानना था कि व्यक्ति को बाहर और भीतर दोनों जगह से संपन्न होना चाहिए। पश्चिम का भौतिकवाद मनुष्य की बाहरी जरूरतों को पूरा करेगा और पूर्व की आध्यात्मिक विरासत उसको आंतरिक शांति प्रदान करेगी।
अध्यात्म तो उसकी तलाश है, उस चैतन्य की, उस साक्षी-भाव की, जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं और केवल अनुभोक्ता रह जाता है। जहां सब दृश्य खो जाते हैं और केवल द्रष्टामात्र रह जाता है। जहां सब ज्ञेय समाप्त हो जाते हैं जहाँ एक क्षण में आपके प्रश्न का स्पष्ट उत्तर प्राप्त हो जाएं और मात्र ज्ञाता शेष रह जाता है। उस केवल-ज्ञान की, उस कैवल्य की खोज अध्यात्म है।
धर्म शब्द का अर्थ : – धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। धर्म की बागडोर श्रद्धा है यानि की सत्य, सही, मानवीय, जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किये हुए है। जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते है इत्यादि। अर्थात हम अपने स्वाभाव के अनुसार अपने मन-मस्तिष्क में उत्त्पन्न धारणा से प्रेरित हो कर ही कर्म करते हैं और उस कर्म को हम अपना धर्म मानकर ही उस कार्य को पूरा करतें हैं।
यह संसार कर्मो का यज्ञ है –
गीता में भगवान श्री कृष्ण का आध्यात्म – नें अर्जुन के सभी प्रश्नों के उत्तर दिए परन्तु अर्जुन के प्रश्नों का कोई अंत नहीं भगवान कृष्ण जैसा व्यक्ति मौजूद हो तो भी प्रश्न उठते चले जाते हैं और यही कारण है शायद अर्जुन कृष्ण के उत्तर को भी नहीं सुन पाते है जिस मन में प्रश्न भरे हो वह उत्तर नहीं समझ पाता और अपने प्रश्नों के भंडार को ही उजागर करता रहता है यहाँ कृष्ण कहते तो जरुर है परन्तु पहुँच नहीं पाते हैं दुविधा है पर ऐसी ही स्थिति है जब मन में प्रश्न भरे हो तो उत्तर समझ नहीं आता है चाहे सामने कृष्ण यानि स्वयं उत्तर ही क्यों न खडें हो, अब अर्जुन जैसा व्यक्ति प्रश्न पूछने वाला हो और उत्तर देने वाले स्वयं भगवान कृष्ण हो तो अर्जुन प्रश्नों की कतार खड़ी कर देता है और कृष्ण भी उत्तर-पर-उत्तर देतें चलें जातें हैं लेकिन अर्जुन की बीमारी घटती हुई नहीं मालूम पड़ती, शयद इस ख्याल में है की कोई ऐसा सवाल पूछ ले की कृष्ण अटक जायें ! शायद वह इस प्रतीक्षा में है की कोई तो वह सवाल होगा, जहाँ कृष्ण भी कह देंगें कि कुछ सूझता नहीं अर्जुन, कुछ समझ नहीं पड़ता। इस प्रतीक्षा में उसका गहरा मन है उसका अचेतन मन इस प्रतीक्षा में है कि कृष्ण कह दें कि मुझे नहीं मालूम जो तुझे करना हो कर; मुझसे इसका कुछ लेना-देना नहीं है! तो अर्जुन जो करना चाहता है कर लें परन्तु कृष्ण ऐसा नहीं करतें हैं वह भली-भांति जानते है कि अर्जुन, तुझे तेरे प्रश्नों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है लेकिन अर्जुन की बीमारी है उसे जवाब नहीं चाहिये उसे ट्रांस्फोर्मेशन चाहिये यानि अर्जुन की भाषा में बोलना पड़ेगा।
अंत में अर्जुन शांत हों श्री कृष्ण से कहते हैं तो आप ही बतायें हे केशव मै अब क्या करूँ? अब यहाँ श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं – हें अर्जुन मेरे समझाने से और तेरे निश्चय करने से कुछ नहीं होने वाला अब तेरा स्व-भाव ही आगे तेरे कर्म तुझ से करवायेगा। आध्यात्म क्या है? गीता में स्वभाव को आध्यात्म कहा गया है। अर्थात आध्यात्म का अर्थ स्वभाव हैं स्वभाव आध्यात्म है। प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के विशेष संयोग के वशीभूत है। (सत्व, रजस, तमस) और अपने गुणों के अनुसार कर्म करता है।
तुम्हे अपना कर्म(कर्तव्य) करने का अधिकार है, कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो अपने आप को अपने कर्मो के फलों का ही कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होजाओ।
आध्यात्मिकता से आनंद का अनुभव –
आध्यात्मिकता का किसी धर्म, संप्रदाय, फिलासफी, या मत से कोई लेना-देना नहीं है। आप अपने अंदर से कैसे हैं, आध्यात्मिकता इसके बारे में है।
आध्यात्मिक होने का मतलब है, जो भौतिकता से परे है, उसका अनुभव कर पाना। अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, और आपके अन्दर दया, क्षमा, जो आपमें है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको बोध है कि आपके दुख, आपके क्रोध, आपके क्लेश के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है, बल्कि आप खुद इनके निर्माता हैं, तो आप आध्यात्मिक मार्ग पर हैं। आप जो भी कार्य करते हैं, अगर उसमें केवल आपका हित न हो कर, सभी की भलाई निहित है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप अपने अहंकार, क्रोध, नाराजगी, लालच, ईर्ष्या, और पूर्वाग्रहों को गला चुके हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। बाहरी परिस्थितियां चाहे जैसी हों, उनके बावजूद भी अगर आप अपने अंदर से हमेशा प्रसन्न और आनन्द में रहते हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको इस सृष्टि की विशालता के सामने खुद के नगण्य और क्षुद्र होने का एहसास बना रहता है तो आप आध्यात्मिक हैं। आपके पास अभी जो कुछ भी है, उसके लिए अगर आप सृष्टि या किसी परम सत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस करते हैं तो आप आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहे हैं। अगर आपमें केवल स्वजनों के प्रति ही नहीं, बल्कि सभी लोगों के लिए प्रेम उमड़ता है, तो आप आध्यात्मिक हैं। आपके अंदर अगर सृष्टि के सभी प्राणियों के लिए करुणा फूट रही है, तो आप आध्यात्मिक हैं।
आध्यात्मिक होने का अर्थ है
कि आप अपने अनुभव के धरातल पर जानते हैं कि मैं स्वयं अपने अन्दर के आनन्द का स्रोत हूं। आध्यात्मिकता कोई ऐसी चीज नहीं है जो आप मंदिर, मस्जिद, या चर्च में प्राप्त कर सकते हैं। यह केवल आपके अंदर ही घटित हो सकती है। आध्यात्मिक प्रक्रिया ऊपर या नीचे देखने के बारे में नहीं है। छोटा या बड़ा हो जाना या अपने समाज व अपने स्थान पर प्रमुख या विशेष सत्ता प्राप्त करने से नहीं है।
मनुष्य के जीवन का सम्पूर्ण लाभ केवल आध्यात्म के द्वारा ही संभव है व आध्यात्म के द्वारा सुख़ का अनुभव कर सकता है। आध्यात्म के आभाव में मनुष्य का संपूर्ण जीवन कष्टमय होता है। अध्यात्मिक जीवन सुख़ का मूल कारण है आध्यात्म के द्वारा ही मनुष्य को आन्तरिक व बाह्य दोनों ही उपलब्धियां प्राप्त होती हैं आध्यात्म सच्चा ज्ञान है इसको जान लेने के बाद जीवन में कुछ शेष नहीं रह जाता और इसके आभाव में सांसारिक जीवन अपूर्ण है आध्यात्म के द्वारा प्राप्त आनंद एक ऐसा आनंद है जिस आनंद की तुलना संसार के किसी भी आनंद से नहीं की ज सकती है ऐसे कभी न मिटने वाले आनंद को छोड़कर जीवन के क्षणिक सुख़ के लिए अपने आप को भौतिक सुखो के पीछे लगा देना और उसी में संतोष करना मानव जीवन का सबसे बड़ा नुकसान है अगर आनंद ही मनुष्य का सबसे सर्वोत्तम लाभ है तो वह जो कभी न मिटने वाला है और बिना आध्यात्म मिलनें वाला नहीं और केवल आध्यात्म के द्वारा ही संम्भव है जो असत्य से सत्य की ओर ले जाये काम-क्रोध, इर्ष्य, द्वेष, छल पर विजय प्राप्त कर ले संसार के कोई दुःख उसे न छु सके अपने आप में आनंदित रहे जबकि सांसारिक व्यक्ति जरा ही दुःख से विचलित हो जाते हैं और अध्यात्मिक व्यक्ति संसार के सभी दुःख सहने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
एक आध्यात्मिक व्यक्ति और एक संसारी व्यक्ति, दोनो ही उसी अनन्त-असीम को चाह रहे हैं। एक उसे जागरूक हो कर खोज रहा है जबकि दूसरा अनजाने में। अगर आप अपना व्यक्तित्व मिटा देते हैं और आप मौन हो जाते है जब आपके सवाल ख़त्म हो जाते है या सवाल नहीं रहते है या आपको जवाब मिल जातें हैं तो आपकी मौजूदगी बहुत प्रबल हो जाती है – यही आध्यात्मिक साधना का सार है।
यह अपने अंदर तलाशने के बारे में है। आध्यात्मिकता की बातें करना या उसका दिखावा करने से कोई फायदा नहीं है। यह तो खुद के रूपांतरण के लिए है। आध्यात्मिक प्रक्रिया मरे हुए या मर रहे लोगों के लिए नहीं है। यह उनके लिए है जो जीवन के हर आयाम को पूरी जीवंतता के साथ जीना चाहते हैं।
आध्यात्मिक प्रक्रिया एक यात्रा की तरह है – निरंतर परिवर्तन। हम राह की हर चीज से प्रेम करना और उसका आनंद लेना सीखते हैं, पर उसे उठाते नहीं। आध्यामिकता मूल रूप से मनुष्य की मुक्ति के लिये है, अपनी चरम क्षमता में खिलने के लिये। यह किसी मत या अवधारणा से अपनी पहचान बनाने के लिये नहीं है। आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को खूब तेज करना। अगर आप अपने ऊपर बाहरी भौतिक संसाधनों जैसी परिस्थितियों का असर नहीं होने देते हैं तो आप स्वाभाविक तौर पर आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अर्थ है कि आप मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं, चाहे आपकी पुरानी प्रवृत्तियां, आपका शरीर, और आपके जीन्स कैसे भी हों। अस्तित्व में एकात्मकता व एकरूपता है। और हर इंसान अपने आप में अनूठा है। इसे पहचानना और इसका आनन्द लेना ही आध्यात्मिकता का सार है।
एक आध्यात्मिक व्यक्ति और एक संसारी व्यक्ति, दोनो ही उसी अनन्त-असीम की चाह रखते हैं। एक उसे जागरूक हो कर खोज रहा है जबकि दूसरा अनजाने में। अगर आप अपना व्यक्तित्व मिटा देते हैं तो आपकी मौजूदगी बहुत प्रबल हो जाती है – यही आध्यात्मिक साधना का सार है। जब आप अपनी नश्वरता के बारे में हरदम जागरूक रहने लगते हैं, तब आप अपनी आध्यात्मिक खोज में कभी विचलित नहीं होते।
अगर आप किसी भी काम में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं, तो आध्यात्मिक प्रक्रिया वहीं शुरू हो जाती है, चाहे वो काम झाड़ू लगाना ही क्यों न हो।
सोच-विचार दिमाग की उपज है, यह कोई ज्ञान नहीं है। आध्यात्मिक होने का अर्थ है औसत से ऊपर उठना – यह जीने का सबसे विवेकपूर्ण तरीका है। इसके लिये कई जन्मों तक साधना करनी पड़ती है – ऐसी सोच अधिकतर लोगों में प्रतिबद्धता और एकाग्रता की कमी के कारण बनती है। साधना एक ऐसी विधि है, जिससे पूरी जागरुकता के साथ आध्यात्मिक विकास की गति को तेज किया जा सकता है। आध्यात्मिकता न तो मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है और न ही सामाजिक – यह पूरी तरह अस्तित्व से जुड़ा है। अगर आप किसी भी काम में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं, तो आध्यात्मिक प्रक्रिया वहीं शुरू हो जाती है, चाहे वो काम झाड़ू लगाना ही क्यों न हो। किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है, और उसी चीज़ को गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है।
FAQ –
Que – अध्यात्म में क्या होता है?
Ans – ईश्वरीय आनंद ईश्वर के समीप होने की अनुभूति करने का मार्ग ही अध्यात्म है। अध्यात्म में व्यक्ति को स्वयं के अन्दर के आनंद से संतुष्टि होती है न की बाह्य भौतिक सुखो से वहि एक सांसारिक व्यक्ति को भौतिक सुखो की तलाश रहती है और फिर भी उसे संतुष्टि नही मिलती है। वास्तव में आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है। अध्यात्मिकता का संबंध हमारे आंतरिक जीवन से है।
Que – आध्यात्म क्या है?
Ans – आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – आत्मा के अध्यन को आध्यात्म कहते है यानी स्वयं का अध्यन यदि आप को स्वयं का ज्ञान हो तो आप को ज्ञान हो जायेगा की आप क्या हैं।
Que – गीता के अनुसार आध्यात्म क्या है?
Ans – गीता का सार है की स्वभाव का अर्थ आध्यात्म है आध्यात्म अर्थात स्वाभाव। मनुष्य में जन्म से स्वभाव का निर्माण प्रकृति के तीन गुणों से होता है सत्व, रजस, तमस ।