स्वर विज्ञान शिव स्वरोदय

।।ॐ नमः शिवाय:।।

स्वर विज्ञान शिव स्वरोदय – स्वरयोग हमारे पुरातन विद्वानों की अनुपम देन है। यह एक ऐसा आश्चर्यजनक एवं चमत्कारिक विज्ञान है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भिन्न-भिन्न विधाओं का जनक भगवान शिव को माना गया है जो कि भगवान शिव के द्वारा माता पार्वती के पूछने पर पहली बार प्रकट हुआ। जिसे शिव-स्वरोदय भी कहा जाता है। जिसके अनुसार हम जो भी कार्य करते हैं वह निश्चित ही सफल होता है, इसमें संशय का तनिक भी स्थान नहीं है।

स्वर विज्ञान शिव स्वरोदय

स्वर विज्ञान शिव स्वरोदय स्वर शास्त्र – एक अद्भुत योग सिद्धि है — 

वास्तव में यह एक अकाट्य सत्य है कि इस साधना जैसी दूसरी कोई साधना विश्व के पटल पर नहीं है। यही एक ऐसी साधना है, जिसमें सिद्धि प्राप्त होने पर साधक क्षण भर में भविष्य और वर्तमान को बदल सकता है, और अपने दुखों व असाध्य रोगों से अल्प समय में ही मुक्त हो सकता है।

स्वर विज्ञान स्वर अर्थात हमारे श्वास पर आधारित है। साधारणतय एक व्यक्ति प्रति मिनट 13 से 15 श्वास-प्रश्वास करता है, और 24 घंटो में लगभग 21600 श्वास-प्रश्वास लेता है। इसी श्वास-प्रश्वास की क्रिया पर व्यक्ति की आयु निर्धारित होती है। जो व्यक्ति श्वास-प्रश्वास की मात्रा जितनी अधिक घटा लेता है, उसकी आयु उतनी ही लम्बी हो जाती है।  

 यही कारण है की हम लोग प्राणायाम को बहुत अधिक महत्व देते हैं। योग एवं साधना में भी प्राणायाम को इसीलिए सर्वाधिक महत्व देते हैं। संभवतः हमारा इन क्रियाओ पर विशेष ध्यान नहीं जाता, परन्तु जो व्यक्ति इस विज्ञान का साधक है, वह जानता है कि हमारे श्वास की गति कितनी रहस्यपूर्ण और आस्चर्यजनक है। यह एक ऐसा विज्ञान जिससे प्रत्येक क्रिया सुख़-दुःख, व्याधि, रोग-शोक आदि की पूर्व सुचना देने में समर्थ है।  

     प्रस्तुत लेख https://divinepanchtatva.com  के माध्यम से स्वरों के चलने के नियम, उनके चलने की अवधि, उनकी गति को जानने की विधि, स्वरों से संबंधित पंचतत्व, आने वाले रोग-शोक, सुख़-दुःख, भविष्य ज्ञान एवं प्रश्नोत्तर पद्धति का पूर्ण विवेचन एवं सम्यक ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। हमारा प्रयास है की इस विज्ञान की आवश्यक उपलब्धियों और उपयोगिताओं से आप लाभान्वित हो सकें।  

इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में जीव के शरीर धारण करते ही उसके नथुनों(Nostril)(नासिका छिद्रों) से श्वास का आवागमन आरम्भ हो जाता है। परन्तु कुछ ही लोग ध्यान देते है कि अबाध गति से चलने वाला श्वास एक समय में दोनों नासिका छिद्रों से नहीं चलता बल्कि निश्चित समय के अनुसार वह  क्रमशः दोनों नथुनों में एक के बाद एक क्रम में चलता है। एक नासापुट का समय पूर्ण हो जाने में पर वह स्वत: ही दुसरे नासापुट से चलना शुरू कर देता है और उस गति का एक नासापुट से दुसरे में जाना उसका उदय कहलाता है, जिस कारण श्वास-प्रश्वास की इस क्रिया को ~“स्वरोदय”~ कहा जाता है। इन स्वरों को साधना ही  “स्वरोदय-साधना”  कहलाता है।  

 

सम्पूर्ण ब्रह्मांड की संरचना ही पंच-तत्वों से हुई है, इन्ही तत्वों द्वारा ही समस्त परिवर्तन होतें हैं। अंत में पञ्च-तत्व में ही लीन हो जाते है। परमात्मा ने सबसे पहले आकाश की, फिर वायु, अग्नि, जल, और अंत में पृथ्वी की रचना की इन्हें ही पंच-तत्त्व कहा जाता है। प्रत्येक जीव-धारी के शरीर की देह में ये पांचों तत्त्व विद्यमान होते है। मानव शरीर भी इन पंच-तत्वों से ही मिलकर बना है। जिसमें नाभि से लेकर मस्तक तक 72,108 नाड़ियाँ है इन्ही नाड़ियों में कुण्डलिनी शक्ति भी है। मानव शरीर में चौबीस नाड़ियाँ प्रधान हैं, जिनमें से दस नाड़ियों में वायु का संचालन होता है। इन दस नाड़ियों में तीन मुख्य नाड़ियाँ हैं, जिन्हें  इडा, पिंगला और सुषुम्ना  कहा जाता है।  

इडा शरीर के बांयीं और फैली हुई है, इसे  चंद्र नाडी  कहते हैं।

पिंगला शरीर के दांयीं और फैली हुई है, इसे  सूर्य नाडी  कहते हैं।

जबकि सुषुम्ना नाडी शरीर के मध्य में स्थित है। सूर्य~चक्र  इसी के आधार पर स्थित है।

इन्ही तीनों नाड़ियों के नाम से तीन प्रकार के स्वर जाने जाते हैं – 

इडा नाडी चन्द्र स्वर अथवा बांया स्वर

पिंगला नाडी सूर्य स्वर अथवा दांया स्वर

सुषुम्ना नाडी जब चन्द्र और सूर्य दोनों स्वर एक साथ चलें

जब श्वास बायें नासापुट(Left Nostril) से बाहर आता है तो उसे चन्द्र स्वर कहते हैं।

जब श्वास दायें नासापुट(Right Nostril) से बाहर आता है तो उसे सूर्य स्वर कहते हैं।

जब श्वास दोनों नासापुट(Both Nostril) से बराबर गति से बाहर आता है तो उसे सुषुम्ना स्वर कहते है।  

 

पंच तत्त्व और स्वर विज्ञान

स्वर अथवा श्वास के आवागमन के साथ-साथ पांचो तत्त्वों में से किसी एक तत्व की उपस्तिथि भी निरंतर बनी रहती है। अतः स्वर साधक को तत्त्वों का ज्ञान होना भी अनिवार्य है। प्रत्येक तत्व की उपस्तिथि श्वास के साथ एक निश्चित समयावधि तक रहती है। प्रत्येक नासापुट में सामान्यतः स्वर एक-एक घंटा(ढाईघड़ी) चलता है, उसके बाद श्वास का प्रवाह दुसरे नासापुट से होने लगता है। पंचतत्व के अनुसार माना जाता है

वास्तु शास्त्र के अनुसार स्वर शास्त्र – में अगर आपके नासिका से स्वर असमान्य रूप से चले तो आपके शरीर व घर के वास्तु में दोष उत्त्पन्न होने की संभावना है। अगर आपकी सूर्य नाडी लगातार चल रही है।  तो आपके दक्षिण पश्चिम दिशा में अगर देखेंगे अवश्य ही दोष उत्पन्न हो रहा होगा जैसे की – दक्षिण पश्चिम में जल तत्व, नीला रंग, घर में निचला स्थान वायु का अत्यधिक प्रवाह इत्यादि।

 

पृथ्वी तत्त्व का निवास मूलाधार(Pelvic plexus) में माना जाता है, 

जल तत्त्व का निवास स्वाधिष्ठान चक्र(Hypogastric plexus) में, 

अग्नि तत्त्व का निवास मणिपुर चक्र (Epigastric plexus) में,

वायु तत्त्व का निवास अनाहत चक्र (Cardiac plexus) में, माना जाता है, आकाश तत्त्व का निवास विशुद्धि चक्र(Carotid plexus) में माना जाता है। जब तक स्वर एक नासापुट में चलता रहता है तब तक पाचों तत्त्व क्रमशः एक-एक बार उदय होकर अपनी-अपनी अवधितक विद्यमान रहकर अस्त हो जाते हैं।

                   किस समय कौन से तत्त्व की उपस्तिथि है, यह ज्ञात करने के लिए यह प्रयोग कर सकते है – दोनों हाथों के दोनों अंगूठों से दोनों कानों के दोनों छिद्रों, दोनों अनामिका अगुलियों से दोनों आखें, दोनों मध्यमाओं से दोनों नथुने,तथा दोनों तर्जनियों एवं कनिष्ठिकाओं से मुख बंद कर लें – उस समय यदि पीला रंग दिखाई दे तो पृथ्वी तत्त्व, 

सफेद रंग दिखाई तो जल तत्व, 

लाल रंग दिखाई दे तो अग्नि तत्त्व, 

हरा रंग अथवा बदल जैसा सांवला रंग दिखाई दे तो वायु तत्त्व, 

और रंग-बिरंगा सा लगे तो आकाश तत्त्व की उपस्तिथि होती है। 

प्रत्येक तत्त्व जैसे — 

पृथ्वी तत्व उदय होने के बाद 20 मिनट तक, 

जल तत्त्व 16 मिनट तक, 

अग्नि तत्त्व 12 मिनट तक, 

वायु तत्त्व 8 मिनट तक और 

आकाश तत्त्व 4 मिनट तक विद्यमान रहते हैं।  

अतः किसी भी कार्य को करते समय स्वर् और तत्त्व का ध्यान रखा जाता है तभी इस साधना के अभीष्ट परिणाम प्राप्त होतें हैं।

स्त्री-पुरुष, दोनों के लियें यह विज्ञान समान रूप से प्रभावी है। यदपि स्त्री को पुरुष का वाम अंग समझा जाता है और उसमें वाम अंग ही प्रधान समझा जाता है परन्तु इसमें शंका होने की आवश्यकता नहीं है। भले ही स्त्री-पुरुष शारीरिक संरचना की दृष्टि से अलग-अलग हों तो भी स्वर विज्ञान के समस्त नियम समान रूप से दोनों पर लागु होतें हैं। 

एक स्त्री में चंद्रमा की प्रधानता होती है और पुरुष में सूर्य की प्रधानता। अतः चन्द्र नाड़ी के चलते स्त्री, सम्पूर्ण स्त्रीत्व गुणों से युक्त हो जाती है जबकि सूर्य नाड़ी गुणों में न्यूनता आ जाती है। 

इसी प्रकार सूर्य नाड़ी की प्रधानता में पुरुष उग्र हो जाता है, जबकि चन्द्र नाड़ी की प्रधानता में उसके पुरुष संबधी स्वाभाव में हल्कापन आ जाता है।

इसी प्रकार सत्रु पुरुष में जबकि श्वास दोनों नासापुटों से समान गति से चल रहा हो तो उसे “सुषुम्ना” स्वर कहते हैं। — सुषुम्ना स्वर पूजा सम्बन्धी कृत्यों के लिए सर्वदा उपयोगी है। सुषुम्ना स्वर के समय सांसारिक कृत्य वर्जित होते हैं।

      वैसे तो हमारी श्वास दोनों नासापुटों से निश्चित समयनुसार चलती रहती है। परन्तु एक स्वस्थ्य मनुष्य की श्वास ढाई घड़ी प्रत्येक नासापुट से चलती है, अर्थात एक घंटा इसके उपरांत स्वतः ही स्वर बदल जाता है। इसी प्रकार प्रतिदिन सूर्योदय काल से ढाई घड़ी के हिसाब से प्रत्येक नासाछिद्र से स्वास चलती है इसका एक निश्चित गणित है, और जो उस गणित को जान लेता है, तथा उसका प्रयोग करता है, वह कभी भी किसी कार्य में असफल नहीं होता।  

 

 तिथियाँ एवं स्वर विज्ञान 

 

तिथियों के अनुसार स्वर साधना में  चन्द्रमा को अधिष्ठाता मन जाता है, और उसी के अनुसार स्वर शास्त्र का सम्पूर्ण गणित चलता है। निरोगी व्यक्ति के लिए स्वर का हिसाब यह है कि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा अर्थात चांदनी रात की पहली तिथि को सूर्योदय के समय चंद्र स्वर अर्थात बायें नासापुट(नथुनों) से श्वास चलेगा, जो 2 ½ ढाई घड़ी(एक घंटा) निरंतर चलेगा। उसके बाद सूर्य स्वर से अर्थात दायें नासापुट से स्वास चलना आरम्भ हो जायेगा। अँधेरी रात में अर्थात कृष्ण पक्ष में पहली तिथि को सूर्योदय के समय सूर्य स्वर अर्थात दायाँ स्वर चलेगा। यह दशा भी 2 ½  ढाई घड़ी ही रहेगी उसके उपरांत दूसरा स्वर चलने लगेगा। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की प्रथमा, द्वितीय, तृतीया तिथि तक उपरोक्त विधि के अनुसार ही स्वर चलेंगें। तीन-तीन दिनों के बाद सूर्योदय के समय स्वर दुसरे नासापुट से पुनः तीन दिनों के लिए चलने लगेगा। इस प्रकार यह क्रम स्वत: ही चलता रहता है। इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए हम स्वर को क्रम से देखते है —

कृष्ण पक्ष –

शुक्ल पक्ष

दाहिना स्वर –

बायाँ स्वर –

(सूर्य अथवा पिंगला)

(चंद्रमा अथवा इड़ा)

प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, 

चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी

सप्तमी, अष्टमी, नवमी,

दशमी, एकादशी, द्वादशी

त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या

शुक्ल पक्ष

कृष्ण पक्ष

चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी

प्रथमा, द्वितीया, तृतीया

दशमी, एकादशी, द्वादशी

सप्तमी, अष्टमी, नवमी

त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या

 

उपरोक्त सारणी से यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि कोण से पक्ष में कौन सा स्वर चलेगा सूर्योदय से 2 ½ घड़ी(1 घंटा) तक एक स्वर चलता है। उसके बाद दूसरा स्वर चलेगा। यह स्वस्थ मनुष्य की रहती है। परन्तु रोगी शरीर होने पर इस स्थिति में अंतर आ जाता है।       

       यदि किसी व्यक्ति को इस विद्या का ज्ञान हो तो वह स्वर की विलोम स्थिति को अनुकूल करके शरीर को व्याधि मुक्त कर सकता है। यदि मुक्त न भी कर सके तो व्याधि का अत्यंत ही अल्प प्रभाव होगा।  

स्वर विज्ञान में वार के अनुसार प्रभाव 

आमतौर पर हमें सवेरे उठते समय जो स्वर आपकी जिस नासिक छिद्र से चल रहा हो उसी स्वर की तरफ वाले पैर को धरती को छुकर रखना चहिये। स्वर का प्रभाव वार के हिसाब से भी लगाया जाता है। यदि सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को प्रातः काल जागने पर बायें नासाछिद्र से श्वास चले तो वह दिन सुख़पूर्वक व्यतीत होता है, जबकि बांयें के स्थान पर अगर दाहिने नासाछिद्र से श्वास चलता हो तो वह दिन अच्छा व्यतीत नहीं होता, निरंतर बाधाएं व चिंताएं बनी रहती हैं। इसी प्रकार रविवार, मंगलवार, बृहस्पतिवार और शनिवार को जागते समय प्रात: काल में यदि दायाँ स्वर चलता हो तो वह दिन सुखपूर्वक व्यतीत होगा जबकि विपरीत स्वर होने पर फल भी विपरीत होगा।   

 अंगुल की माप द्वारा तत्त्व ज्ञान  

                श्वास की गति के दबाव द्वारा भी तत्त्व की पहचान की जा सकती है। इसके लिए आप शांत मुद्रा में बैठ जायें। साधारण गति से श्वास लें और देखें कि आपका श्वास कितनी दुरी तक जाता है। जहां तक श्वास जाता हो उसकी माप अंगुल से कर लें। यदि यह चार अंगुल तक हो तो अग्नि तत्त्व, यदि आठ अंगुल हो तो वायु तत्त्व, यदि 12 अंगुल हो तो पृथ्वी तत्त्व, और यदि 16 अंगुल हो तो जल तत्त्व की उपस्तिथि जाननी चाहिये।       

स्वर विज्ञान और कार्य सिद्धि 

स्वर साधना में श्वास की स्थिति को देखकर किये गए कार्यो में निश्चित ही सफलता प्राप्त होती है। स्वरों के अनुकूल किये गए कार्य और स्वर के विपरीत किये गए कार्य का परिणाम कार्य के अंत में न होकर कार्य के प्रारम्भ में ही छिपा है आइये अब इसका अध्यन करते हैं — 

बांया स्वर  

बांया स्वर चलते समय स्थिर प्रकृति के कार्य करने चाहियें। अर्थात ऐसे कार्य जो स्थाई हो, जैसे – घर व मकान बनवाना, मंदिर में देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा करवाना, दान देना, विवाह करना, वस्त्र खरीदना, प्रेम करना, धर्म कार्य करना, खेत में बीज बोना , व्यापर करना, अन्न आदि का संग्रह करना, कुआँ, तलाब अथवा सरोवर बनवाना, वस्त्र खरीदना, वाहन खरीदना, सवारी करना, औषधि लाना अथवा बनाना, अलंकार बनवाना, जल पीना, दूकान खोलना, शत्रु से संधि करना, पेशाब करना, किसी की सिफारिश करना, दक्षिण अथवा पश्चिम दिशा की यात्रा करना, नौकरी पर प्रथम दिन जाना, मकान बदलना, आदि स्थिर प्रवृति के कार्य बांया स्वर चलते समय करने से उनमे पूर्ण सफलता मिलती है। यदि (चन्द्र)नाड़ी बांया स्वर चल रहा हो और साथ ही जल अथवा पृथ्वी तत्त्व भी उपस्तिथि हो तो कृत कार्य का शुभ परिणाम तुरंत प्राप्त होता है। 

 

स्वर विज्ञान शिव स्वरोदय स्वरयोग

दायां स्वर  

 

 सूर्य स्वर अथवा दायाँ स्वर के चलते समय अधिकाधिक कठिन कार्य करने चाहियें। इस स्वर के चलते कठिन विधायें सीखना, कठिन विषयों का अध्ययन, जहाज की सवारी, शिकार खेलना, लेन-देन करना, मल्ल युद्ध अथवा वाद-विवाद में भाग लेना, सोना, जुआ खेलना, भोजन करना, मल त्यागना, शत्रु पर हमला करना, किसी इमारत को गिराना, पूर्व और उत्तर की यात्रा करना, कर्ज लेना या देना, स्त्री समागम करना, मन्त्र सिद्ध करना, पशुओं का विक्रय करना, तन्त्र विद्या सीखना, भुत-प्रेत जैसे अशरीरी आत्माओं को वश में करना, नदी में तैरना, षटकर्मो की साधना करना आदि कार्य दायें स्वर के चलते समय करने से उनमें निश्चय ही सफलता प्राप्त होती है। अर्थात ऐसे कार्य जो चर प्रकृति के हों, सूर्य स्वर में ही करने चाहियें।  

स्वर विज्ञान शिव स्वरोदय स्वरयोग

सुषुम्ना स्वर    

 

    जब स्वर बार-बार बदलता हो, अथवा दोनों स्वर समान गति से चल रहे हों वह सुषुम्ना स्वर होता है। इस स्वर के चलते व्यक्ति को केवल हरी भजन, अथवा योगाभ्यास करना चहिये। क्योंकि इस समय की गयी साधना बहुत अधिक प्रभावी होती है। इसका मुख्य कारण यह है की सुषुम्ना स्वर के चलते समय देह की समस्त नाड़ियाँ और चक्र विकसित हो जातें हैं। ऐसे में मन्त्र जप भी बहुत प्रभावी हो जाता है। अतः सुषुम्ना स्वर के चलते कोई भी सांसारिक कार्य नहीं करने चाहिये क्योंकि इस समय सांसारिक कार्य वर्जित होतें हैं। इसका कारण यह है कि सुषुम्ना नाडी के चलते अग्नि तत्त्व की प्रधानता हो जाती है। इसलिये इस स्वर के चलते शुभ अथवा अशुभ जो भी कार्य किया जायेगा, वह निष्फल हो जायेगा। इस स्वर के चलते केवल ईश्वर चिन्तन ही कल्याण कारक और सर्वदा उपयोगी हैं। 

स्वर विज्ञान कार्य सिद्धि एवं तत्त्व     

भूमि तत्त्व की उपस्तिथि में किया गया कार्य देर से परिणाम देता है।  जल तत्त्व में किया गया कार्य तत्काल फलदायी होता है। वायु तत्त्व और अग्नि तत्त्व की उपस्तिथि में किया गया कार्य हानि देने वाला होता है। आकाश तत्त्व की उपस्तिथि में किये गये समस्त कार्य निष्फल होते हैं।  

स्वर विज्ञान में स्वर साधना का महत्त्व    

एक स्वर साधक के लिए सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। उसे किसी धन की आवश्कता नहीं है, क्योंकि जो साधक स्वर ज्ञान के अनुसार कार्य करता है, लक्ष्मी स्वतः ही उसके साथ चलने लगती हैं। जिसे स्वर ज्ञान और तत्त्व ज्ञान प्राप्त हो, उसकी प्रसिद्धि सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हो जाती है।   

      स्वर साधक प्राणी की देह ऐसी नगरी है, जिसमें प्राण वायु निवास करती है। और सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करती है। जिस समय प्राण वायु शरीर में प्रवेश करती है, उस समय उसका परिमाण दस अंगुल का होता है, परन्तु बाहर निकलने पर उसका परिमाण बारह अंगुल का हो जाता है। जिस समय प्राणी चलता-फिरता है उस समय प्राण वायु का परिमाण बीस अंगुल का होता हैऔर जब वह उछलने-कूदने लगता है, तब उसका परिमाण बयालीस अंगुल का हो जाता है।   

     स्वास को एक बार अंदर जाकर बाहर आने में साधारणतया चार सेकंड का समय लगता हैं। इसी समय के कम-अधिक होने का प्रभाव मनुष्य की आयु पर पड़ता है। सामान्यता: भिन्न-भिन्न क्रियायें सम्पादित करते समय श्वास की गति का परिमाण इस प्रकार होता है —    

    • गाना गाते समय श्वास की गति का परिमाण 16 अंगुल होता है।   
    • भोजन करते समय परिमाण 20 अंगुल,
    • चलते समय 24 अंगुल परिमाण,
    • सोते समय 30  परिमाण,
    • सम्भोग के समय श्वास की गति ३६ अंगुल परिमाण होती है।   

जबकि व्ययाम करते समय श्वास की गति इससे भी अधिक परिमाण में होती है इस गति के घटने से आयु में वृद्धि तथा इसके बढ़ने से आयु में अल्पता आती है अतः साधक को गहरी श्वास लेनी चाहिये।    

श्वास की प्राकृतिक गति को 12 अंगुल से घटाकर 11 अंगुल कर लेने से प्राण वायु स्थिर हो जाती है।

श्वास की गति को 11 अंगुल से घटा कर 10 अंगुल करने लेने से महा आनंद कि प्राप्ति होती है।

स्वर परिवर्तन विधि 

स्वर विज्ञान – में यदि आप आवश्यकता अनुसार स्वरों में परिवर्तन चाहते हैं, तो उसके लिए विधियाँ अपनायें –

    1. अचानक दौड़ने से, कठोर परिश्रम करने से स्वरों में परिवर्तन होनें लगता है, औषधि भी प्रभावी होने लगती है।   
    2. पुरानी रुई लेकर उसकी डाट बनाये तथा नासिका के उस छिद्र में लगा दें, जिससे स्वर स्वर बह रहा हो। ऐसे प्रयोग से भी चलता स्वर बन्द होकर दूसरा स्वर चलने लगता है।   
    3. यदि आपका चंद्र स्वर (बांया) चल रहा हो, और आप दाहिना स्वर (सूर्य) चलाना चाहते हैं तो बांयी करवट लेट जायें। इससे आपका चंद्र स्वर बंद होकर सूर्य स्वर चलने लगेगा। कहने का तात्पर्य यह है की आपका जो भी स्वर चल रहा है उसकी ही और करवट लें। परिणामस्वरूप आपकी करवट के विपरीत स्वर चलना शुरू हो जायेगा। 
    4. योग दण्ड का उपयोग स्वर परिवर्तन के लिए ही किया जाता है। 

                कार्य के अनुसार स्वर चलने तक प्रतीक्षा करना अत्यंत दुष्कर है। अतः स्वर परिवर्तन का ज्ञान अत्यंत ही आवश्यक है।स्वर परिवर्तन छ: माह के अभ्यास से सिद्ध हो जाता है और ऐसा साधक जिसने स्वर का साधन करना सीख लिया हो वह वायु पर विजय प्राप्त क्र सकता है।   

 

स्वर विज्ञान में साधना के लाभ एवं प्रयोग  

स्वर विज्ञान के अनेकानेक लाभ हैं। इसकी साधना से निवृत्ति, यात्रा में सफलता, मृत्यु भय, सफल गर्भाधान, भविष्य कथन, प्रश्न विचार, आदि के सफल प्रयोग किये जा सकते हैं।  —-   

रोगों से निवृति भोजन करते समय सूर्य नाडी चलने से भोजन का पचन अछे से हो जाता है अपच नहीं होती और भोजन तरल मात्र से शरीर में पोषण बनाने का कार्य करता है।  और कोई पेय पदार्थ पीते समय बांया स्वर चलना चाहिये। 

विष बाधायदि किसी व्यक्ति ने जहर का सेवन कर लिया हो तो उसका जल तत्त्व व चंद्र स्वर शीघ्र चला दें इससे उस मनुष्य पर जहर का तनिक भी प्रभाव  नहीं होगा।   

ज्वर यदि किसी जातक पर ज्वर का प्रभाव दिखाई दे तो उस समय उसका जो भी स्वर चल रहा हो उसे बंद कर दें और जब तक शरीर पूर्ण रूप से स्वस्थ ना हो जाये, तब तक उसे बंद ही रखें।    

दीर्घायु श्वास की गति को नियंत्रित करके साधक दीर्घायु हो सकता है। श्वास की गति व प्रमाण को कम करके ही दीर्घ जीवन जिया जा सकता है। 

निरोगी काया जो जातक दिन में बांये नासाछिद्र से तथा रात्री में दांये नासाछिद्र से श्वास लेता है, उसका शरीर सदैव निरोगी रहता है। उसका आलस्य दूर होकर उसमें चैतन्यता की वृद्धि होती है।  

संतान प्राप्तिके लिए पुरुष का दांया सूर्य स्वर चलना अनिवार्य है अन्यथा गर्भधारण नहीं होगा। पुरुष को बांयी ओर करवट लेटन पर सूर्य नाडी चलनी चाहिये व स्त्री को दांयी ओर करवट लेकर चंद्र नाडी चलने पर संतान प्राप्ति के योग प्रबल हो जाते हैं।  

इच्छापूर्तिप्रात: काल में आँख खुलते ही ध्यान रखें कि जिस और का स्वर चल रहा हो उसी और की हथेली अपने चेहरे पर रखकर उसी ओर का पैर भूमि पर रखने से कार्य सिद्धि होती है।  

युवाअवस्था प्राप्ति सदैव युवा बने रहने के लिए व्यक्ति को स्वर बदलने का अभ्यास करना चाहिये। दिन में जब भी अवसर मिलें, उसी समय चलते हुए स्वर को बदल देना चाहिये, इससे उस व्यक्ति को युवाअवस्था प्राप्त होती है।  

कब्जदाहिना स्वर चलते समय भोजन आदि करने वाले व्यक्ति को कभी भी कब्ज नहीं होगी। भोजन करने के बाद कुछ देर आराम करना चाहिये।  

दर्दयदि साधक को किसी भी अंग में दर्द होने लगे तो उस समय जो भी स्वर चल रहा हो उसे बंद कर देने से दर्द ठीक हो जाता है।  

FAQs

प्रश्न – स्वर विज्ञान व वास्तु शास्त्र में कोई सम्बन्ध है क्या ?

उत्तर = स्वर विज्ञान व वास्तु शास्त्र का सीधा सम्बन्ध है वास्तु शास्त्र के अनुसार स्वर शास्त्र – में अगर आपके नासिका से स्वर असमान्य रूप से चले तो आपके शरीर व घर के वास्तु में दोष उत्त्पन्न होने की संभावना है। अगर आपकी सूर्य नाडी लगातार चल रही है।  तो आपके दक्षिण पश्चिम दिशा में अगर देखेंगे अवश्य ही दोष उत्पन्न हो रहा होगा जैसे की – दक्षिण पश्चिम में जल तत्व, नीला रंग, घर में निचला स्थान वायु का अत्यधिक प्रवाह इत्यादि।

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